होली स्पेशल : : अनूठे अंदाज में होली मनाते हैं आदिम जनजाति के लोग, शिकार से शुरू होता है पर्व का उल्लास

Faizan Ashraf
Updated At: 14 Mar 2025 at 12:00 PM
होली की अनोखी परंपरा: शिकार, नृत्य और सामूहिक भोज
समय बदल रहा है, परंपराएं बदल रही हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ और झारखंड के जंगलों में निवास करने वाली आदिम जनजातियां आज भी अपनी प्राचीन रीति-रिवाजों को जीवित रखे हुए हैं। इनके लिए होली केवल रंगों का त्योहार नहीं, बल्कि शिकार, नृत्य और सामूहिक भोज का उत्सव है। यहाँ बिरहोर, कोरवा और असुर जनजातियों के लोग होली से एक दिन पहले जंगल में निकलते हैं, दिनभर शिकार करते हैं और रात को पारंपरिक गीतों और नृत्य के साथ उत्सव मनाते हैं।
होली से पहले शिकार की अनूठी परंपरा
छत्तीसगढ़ और झारखंड के जंगलों में रहने वाली बिरहोर और कोरवा जनजाति होली से एक दिन पहले तीर-धनुष लेकर जंगल में जाते हैं। इनका मुख्य शिकार बंदर, खरगोश, जंगली सूकर, सियार और भेड़िया होते हैं। शिकार करना इनके लिए सिर्फ भोजन प्राप्त करने का साधन नहीं, बल्कि यह परंपरागत रीति-रिवाज और सामाजिक एकता का प्रतीक भी है।
शिकार के बाद गांव लौटते ही जश्न शुरू हो जाता है। सभी लोग एक साथ बैठकर शिकार किए गए जानवर को पकाते हैं और पारंपरिक गीतों और नृत्यों के साथ होली का आनंद लेते हैं।
बिरहोर जाति: जिनका छुआ पेड़ बंदरों के लिए वर्जित!
बिरहोर जनजाति के लोगों से जुड़ी एक अनूठी मान्यता है। कहा जाता है कि जिस पेड़ को बिरहोर जाति के लोग छू लें, उसमें बंदर नहीं चढ़ता। बुजुर्गों के अनुसार, बंदरों में गंध पहचानने की विशेष शक्ति होती है और बिरहोरों के स्पर्श से पेड़ों में एक खास गंध आ जाती है, जिसे सूंघकर बंदर दूर चले जाते हैं। यही कारण है कि जब ये लोग शिकार करने जंगल में जाते हैं, तो बंदर इनके निशाने में आसानी से आ जाते हैं।
असुर जनजाति: जहां महिलाएं भी करती हैं शिकार
असुर जनजाति में पुरुष ही नहीं, बल्कि महिलाएं भी शिकार करती हैं। पुरुष जंगलों में जंगली सूकर, सियार और भेड़िए का शिकार करते हैं, जबकि महिलाएं तालाब, नदी और डैम में मछलियां पकड़ती हैं। इसके लिए वे कई दिन पहले से तैयारियां शुरू कर देती हैं।
शिकार से लौटने के बाद असुर जनजाति के लोग सामूहिक भोज का आयोजन करते हैं और पूरी रात पारंपरिक गीतों और नृत्य के साथ होली मनाते हैं।
होली के दिन रंग, नृत्य और उमंग का संगम
होली के दिन ये आदिवासी समुदाय फिर से इकट्ठा होते हैं। शिकार किए गए भोजन को सामूहिक रूप से पकाया जाता है और फिर पूरा समुदाय एक साथ नाच-गान करता है, ढोल-नगाड़ों की धुन पर झूमता है और पूरे उल्लास के साथ होली का आनंद लेता है।
इन आदिम जनजातियों की होली की परंपराएं हमें हमारे इतिहास, संस्कृति और प्रकृति से जुड़ने की सीख देती हैं। जब पूरा देश रंगों में सराबोर होकर गुझिया और ठंडाई का लुत्फ उठा रहा होता है, तब जंगलों में रहने वाले ये समुदाय अपनी विरासत और परंपराओं के रंगों से अपनी संस्कृति को और समृद्ध कर रहे होते हैं।
यह सिर्फ होली नहीं, बल्कि एक जीवनशैली है, एक दर्शन है, जो प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर जीने की प्रेरणा देता है। यह त्योहार हमें सिखाता है कि खुशियां प्रकृति की गोद में भी खिल सकती हैं, और उल्लास का रंग जंगलों में भी बिखर सकता है।यह सिर्फ होली नहीं, यह संस्कृति और परंपरा का उत्सव है!
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